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अग॑च्छदु॒ विप्र॑तमः सखी॒यन्नसू॑दयत्सु॒कृते॒ गर्भ॒मद्रिः॑। स॒सान॒ मर्यो॒ युव॑भिर्मख॒स्यन्नथा॑भव॒दङ्गि॑राः स॒द्यो अर्च॑न्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agacchad u vipratamaḥ sakhīyann asūdayat sukṛte garbham adriḥ | sasāna maryo yuvabhir makhasyann athābhavad aṅgirāḥ sadyo arcan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग॑च्छत्। ऊँ॒ इति॑। विप्र॑ऽतमः। स॒खि॒ऽयन्। असू॑दयत्। सु॒ऽकृते॑। गर्भ॑म्। अद्रिः॑। स॒सान॑। मर्यः॑। युव॑ऽभिः। म॒ख॒स्यन्। अथ॑। अ॒भ॒व॒त्। अङ्गि॑राः। स॒द्यः। अर्च॑न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन पुरुष सुख देनेवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मर्य्यः) मनुष्य (युवभिः) युवावस्थापन्न पुरुषों के सहित वर्त्तमान (सखीयन्) मित्र को चाहता वा (मखस्यन्) आत्मसम्बन्धी यज्ञ करने की इच्छा करता हुआ (अथ) उसके अनन्तर (अङ्गिराः) शरीरों में रस के सदृश वर्त्तमान (सद्यः) शीघ्र (अर्चन्) सत्कार करता हुआ (विप्रतमः) अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष उस स्त्री के समीप (अगच्छत्) प्राप्त होवे वह पुरुष (अद्रिः) मेघ जैसे (गर्भम्) गर्भ को वैसे (सुकृते) उत्तम कर्म के करने में उद्यत (अभवत्) होवे तथा सत्यासत्य का (ससान) विभाग करता है (उ) और भी निकृष्ट कर्म को (असूदयत्) नाश करे ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो ब्रह्मचर्य्य से विद्या और उत्तम शिक्षा को ग्रहण करके युवा पुरुष अपने तुल्य कन्या के साथ सुहृद्भाव और प्रीति को प्राप्त हो के उसको सत्कार करता हुआ विवाहै, वह पुरुष जैसे मेघ से संसार सुख को प्राप्त होता है, वैसे सुख को प्राप्त होवे ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कः पुमान् सुखदो भवतीत्याह।

अन्वय:

यो मर्यो युवभिः सह वर्त्तमानो सखीयन् मखस्यन्नथाङ्गिराः सद्योऽर्चन् विप्रतमस्तां भार्य्यामगच्छत् सोऽद्रिर्गर्भमिव सुकृतेऽभवत् सत्याऽसत्ये ससान उ दुष्कृतमसूदयत् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अगच्छत्) प्राप्नुयात् (उ) वितर्के (विप्रतमः) अतिशयेन मेधावी (सखीयन्) आत्मनः सखायमिच्छन् (असूदयत्) सूदयत् क्षरयेत् (सुकृते) सुष्ठु कृतेऽनुष्ठिते (गर्भम्) गर्भमिव वर्त्तमानं जलसमुदायम् (अद्रिः) मेघः (ससान) सनति विभजति (मर्य्यः) मनुष्यः (युवभिः) प्राप्तयुवाऽवस्थैः (मखस्यन्) आत्मनो मखं यज्ञमिच्छन् (अथ) आनन्तर्ये (अभवत्) भवेत् (अङ्गिराः) अङ्गेषु रसवद्वर्त्तमानः (सद्यः) शीघ्रम् (अर्चन्) सत्कुर्वन् ॥७॥
भावार्थभाषाः - यो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे सङ्गृह्य युवा सन् स्वतुल्यया कन्यया सह सुहृद्भावं प्रीतिं प्राप्य तां सत्कुर्वन्नुपयच्छेत्स मेघाज्जगदिव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो तरुण पुरुष ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या व उत्तम शिक्षण ग्रहण करून आपल्यासारख्याच स्त्रीबरोबर सुहृदभाव व प्रीतीने विवाह करतो तो पुरुष मेघ जसा जगाला सुखी करतो, तसे सुख प्राप्त करतो. ॥ ७ ॥